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ज्योतिराव फुले

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परिचय

ज्योतिराव फुले, जिन्हें ‘ज्योतिबा’ के नाम से जाना जाता है, एक प्रसिद्ध भारतीय समाज सुधारक, लेखक और सभी व्यक्तियों, विशेष रूप से वंचित महिलाओं और मज़दूरों के लिए समानता के समर्थक थे।

उन्होंने जातिगत पूर्वाग्रह और अस्पृश्यता के घृणित रीति - रिवाजों का बहादुरी से सामना किया था। समाज सुधारक फुले की स्थायी विरासत आधुनिक युग में न्याय और समानता के बारे में तर्कों को प्रभावित करती है।

 

 

प्रारम्भिक वर्ष और उनका प्रभाव

फुले का जन्म 11 अप्रैल, 1827 को महाराष्ट्र के पुणे में माली जाति के किसानों और बागवानों में हुआ था। कम उम्र में ही उनकी माँ चिम्बाई का निधन हो गया था और उन्हें शुरू से ही चुनौतियों का सामना करना पड़ा था।

वित्तीय कठिनाईयों का सामना करने के बावजूद एक पड़ोसी ने उनकी बौद्धिक योग्यता को देखा और उनके पिता गोविंदराव को उनकी स्कूली शिक्षा का खर्च उठाने के लिए राज़ी कर लिया।

पुणे में स्कॉटिश मिशन हाई स्कूल में पढ़ते समय समानता की पश्चिमी अवधारणाओं के सम्पर्क में आने से उनके सुधारवादी विश्वास बहुत प्रभावित हुए।

 

 

जाति - आधारित भेदभाव का मुकाबला

1848 में एक ब्राह्मण मित्र की शादी में फुले का अपमान किया गया था, जिससे जाति व्यवस्था का विरोध करने का उनका संकल्प जाग गया। इसके जवाब में, उन्होंने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की।

इस समाज का लक्ष्य सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाना और शिक्षा के माध्यम से निचली जातियों को अधिक शक्ति प्रदान करना था। वह जाति व्यवस्था के प्रबल विरोधी थे और इसे भारत के विकास में एक बड़ी बाधा के रूप में देखते थे।

 

 

महिला अधिकारों का प्रचार

1848 में फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने पुणे में पहला बालिका विद्यालय स्थापित किया, जिससे वह महिलाओं के लिए भारतीय शिक्षा आंदोलन में अग्रणी बन गए।

यह तथ्य कि सावित्रीबाई भारत में पहली महिला शिक्षिका थीं, शिक्षा के माध्यम से महिलाओं के उत्थान के लिए उनके समर्पण को दर्शाता है। कमज़ोर बच्चों और गर्भवती विधवाओं की सुरक्षा के लिए फुले ने 1863 में एक शिशुहत्या रोकथाम केन्द्र और 1854 में एक अनाथालय भी स्थापित किया।

 

 

साहित्य और आदर्शों में योगदान

फुले के लेखन जैसे कि 1873 में प्रकाशित ‘गुलामगिरी’ (दासता), ने निचली जातियों के साथ दुर्व्यवहार को उजागर किया और ब्राह्मणवादी वर्चस्व की आलोचना की। उन्होंने सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए व्यावहारिक शिक्षा (ख़ासकर कृषि के क्षेत्र में) की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।

 

 

भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लेना

फुले ने ब्रिटिश प्रशासन की दमनकारी प्रथाओं पर हमला किया, विशेष रूप से शिक्षा के क्षेत्र में, जिसमें निचली जातियों और निम्न सामाजिक - आर्थिक स्थिति वाले समुदायों की उपेक्षा की गई थी।

महिलाओं के अधिकारों और आत्मनिर्णय के प्रति उनके समर्थन ने ‘डॉ. बी.आर. अंबेडकर’ जैसे बाद के नेताओं पर प्रभाव डालकर अप्रत्यक्ष रूप से भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को आगे बढ़ाने में मदद की।

 

 

आज के युवाओं और भारत के लिए सबक

लैंगिक अन्याय और जातिगत पूर्वाग्रह के ख़िलाफ़ फुले की अटूट लड़ाई आज के युवाओं को न्याय और समानता का समर्थन करने के लिए एक शक्तिशाली सन्देश के रूप में कार्य करती है।

सामाजिक उन्नति के साधन के रूप में शिक्षा पर उनका ध्यान इस बात पर प्रकाश डालता है कि सामाजिक बाधाओं को दूर करने और समावेशी विकास को बढ़ावा देने में यह कितना महत्वपूर्ण है।

युवाओं को अन्तर - धार्मिक और अन्तर - जातीय सद्भाव के लिए फुले के समावेशी दृष्टिकोण से विविधता को स्वीकार करने और एकजुटता को आगे बढ़ाने की प्रेरणा मिलती है।

 

 

यात्रा की दिशा

वर्तमान सामाजिक कठिनाइयों से निपटने के तरीक़े की गहन समझ, फुले की शिक्षाओं को समकालीन शैक्षणिक संस्थानों में शामिल करके तथा उनके जीवन और विचारों पर अतिरिक्त शोध करके प्राप्त की जा सकती है।

समाज समानता और निष्पक्षता प्राप्त करने के करीब जा सकता है, जिसका फुले ने उनकी विरासत का सम्मान करके इतने उत्साह से प्रचार किया था।

 

 

संक्षेप में

ज्योतिबा फुले का जीवन और योगदान समानता और सामाजिक न्याय की अथक खोज का उदाहरण है। उनके काम ने वंचित क्षेत्रों में सुधार और सार्वभौमिक शिक्षा की वकालत करने की नींव रखी।

फुले का दृष्टिकोण आज भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत लैंगिक असमानता और जातिगत अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ रहा है। उनकी विरासत दलितों के उत्थान में सामाजिक सक्रियता और शिक्षा की परिवर्तनकारी क्षमता का प्रमाण है।

उनका जीवन आज के बच्चों के लिए प्रेरणा का काम कर सकता है क्योंकि वह  एक ऐसा समाज बनाने के लिए काम करते हैं, जो अधिक न्यायपूर्ण और समान हो।